शपथ घोषणाओं में शब्दों के सावधानीपूर्वक चयन पर प्रकाश डाला गया ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि सांसद निष्ठा के साथ अपनी जिम्मेदारियों का पालन करें।
संविधान सभा के सदस्यों ने दिए अपने-अपने तर्क
इस अनुसूची पर संविधान सभा में कई सदस्यों ने अपने-अपने तर्क रखे, खासकर शपथ और प्रतिज्ञान में ईश्वर के नाम का आह्वान करने के मामले पर। डॉ. आंबेडकर ने एक संशोधन पेश किया, जिसमें लोगों को ‘ईश्वर’ के नाम पर शपथ लेने का विकल्प दिया गया। पंजाब के सिख सदस्य सरदार भूपेन्द्र सिंह मान ने इस कदम का नैतिक और धार्मिक आधार पर विरोध किया। आश्चर्य की बात यह है कि सदस्य ने इस बात पर जोर दिया कि चूंकि ईश्वर विधानसभा के सदस्य नहीं हैं और न ही उनकी सहमति ली गई है, इसलिए ‘ईश्वर’ शब्द को शपथ में शामिल नहीं किया जा सकता।
“मैं … जो लोकसभा की सदस्य निर्वाचित हुआ/हुई हूं, ईश्वर की शपथ/सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञान लेता/लेती हूं कि मैं विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखूंगा/रखूंगी। मैं भारत की प्रभुता और अखंडता अक्षुण्ण रखूंगा/रखूंगी। तथा जिस पद को मैं ग्रहण करने वाला/वाली हूं, उसके कर्तव्यों का श्रद्धापूर्वक निर्वहन करूंगा/करूंगी।” संसद में एक-एक कर सभी सांसद यह शपथ ले रहे हैं। 18वीं लोकसभा की पहली बैठक में शपथ के इन शब्दों से सदन गूंज रहा है। कुछ सांसद संविधान और अपने पद की मर्यादा के प्रति ईश्वर की शपथ ले रहे हैं तो कुछ सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञान ले रहे हैं। कभी सोचा कि आखिर शपथ के लिए ये दो विकल्प ही क्यों होते हैं? कोई धार्मिक ग्रंथ, ईश्वर के नाम, संविधान या किसी और के नाम से शपथ क्यों नहीं लेता?
शपथ के शब्दों पर जोरदार बहस
संविधान के निर्माण में 2 वर्ष, 11 महीने, 18 दिन का वक्त लगा। संविधान सभा ने इन कुल 114 दिनों में एक-एक विषय पर गंभीर और विस्तृत चर्चा की। जब बात सांसदों के शपथ की आई तब इस बात पर खूब चर्चा हुई कि इसका प्रारूप क्या हो। प्रारूप समिति के अध्यक्ष के तौर पर डॉ. भीमराव आंबेडकर ने सांसदों के शपथ का एक प्रारूप तैयार किया। संविधान का जो प्रारूप तैयार किया गया था, उसमें शपथ का विषय तीसरी अनुसूची में रखा गया। इस पर 26 अगस्त और 16 अक्टूबर, 1949 को संविधान सभा में चर्चा हुई। इसमें केंद्रीय मंत्री, राज्य मंत्री, संसद सदस्य, राज्य विधानमंडल के सदस्य, सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के पद पर आसीन व्यक्तियों द्वारा लिए जाने वाले प्रतिज्ञान और शपथ शामिल हैं।
सत्यनिष्ठा से पहले ईश्वर का विकल्प दिए जाने की मांग
एक अन्य सदस्य ने कहा कि इन पदों पर आसीन लोग धर्मनिरपेक्ष कार्य करेंगे, उनसे शपथ लेते समय ईश्वर का नाम लेने के लिए कहना कोई मतलब नहीं रखता। उन्होंने यह भी तर्क दिया कि राजनीति में व्यक्ति को अधार्मिक कार्य करने पड़ते हैं, इसलिए ‘ईश्वर’ को इसमें शामिल करना अनुचित है। सभा के कुछ सदस्य इस बात पर भी अड़े थे कि शपथ ग्रहण से पहले शपथ ग्रहण होना चाहिए, जिसमें ‘ईश्वर’ का जिक्र न हो। उनका मानना था कि ‘ईश्वर’ शब्द को बाद में रखने का मतलब है कि इसका महत्व कम हो गया है। एक सदस्य ने इस बदलाव के पक्ष में जोरदार तर्क दिया। उनका कहना था कि भारतीय जनता की पसंद के अनुसार बनाए गए संविधान में शपथ की शुरुआत ‘ईश्वर’ के नाम पर शपथ लेने से होनी चाहिए। इस बदलाव को सुनिश्चित करने वाले संशोधन को अंततः संविधान सभा ने स्वीकार कर लिया। सभा से संशोधित तीसरी अनुसूची को 26 अगस्त, 1949 को संविधान में अपना लिया गया। 16 अक्टूबर, 1949 को अनुसूची पर फिर चर्चा की गई, लेकिन कोई महत्वपूर्ण परिवर्तन नहीं किया गया।
डॉ. आंबेडकर ने पेश किया संशोधन प्रस्ताव
आइए जानते हैं कि 26 अगस्त, 1949 को शपथ के शब्दों पर किन सदस्यों ने क्या-क्या कहा। यहां हम कुछ प्रमुख सदस्यों के तर्कों को ही रख रहे हैं जिन्हें पढ़कर आप गदगद हो जाएंगे। इस विषय पर बहस की शुरुआत डॉ. आंबेडकर की तरफ से संशोधन पेश किए जाने पर हुई। डॉ. आंबेडकर ने कहा-
“माननीय डॉ. बी. आर. अम्बेडकरः श्रीमान मैं यह प्रस्ताव उपस्थित करता हूं कि ” तृतीय अनुसूची में घोषणाओं के प्रपत्र 1 में ‘Solemnly affirm (or swear)’ [सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञान करता हूं (अथवा शपथ लेता हूं)] ‘ शब्दों और कोष्ठकों के स्थान पर निम्नलिखित रखा जाए :-
‘Solemnly affirm’ (सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञान करता हूं)/Swear in the name of God’ (ईश्वर की शपथ लेता हूं)’ श्रीमान, मैं यह प्रस्ताव भी उपस्थित करता हूं कि “तृतीय अनुसूची में घोषणाओं के प्रपत्र 2 में ‘Solemnly affirm (or swear) [सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञान करता हूं (अथवा शपथ लेता हूं) शब्दों और कोष्ठकों के स्थान पर निम्नलिखित रखा जाए :- ‘Solemnly affirm’ (सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञान करता हूं)/‘Swear in the name of God’ (ईश्वर की शपथ लेता हूं) “
तृतीय अनुसूची में घोषणाओं के प्रपत्र 3 में (क) ‘declaration (घोषणा)’ शब्द के स्थान पर ‘ affirmation or oath’ (प्रतिज्ञान अथवा शपथ ) ‘ शब्द रखे जाएं।
(ख) ‘solemnly and sincerely promise and declare’ (सत्य निष्ठा और सच्चे हृदय से प्रतिज्ञा और घोषणा करता हूं)’ शब्दों के स्थान पर निम्नलिखित
शब्द रख जाएं: ‘Solemnly affirm’ (सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञान करता हूं) ‘Swear in the name of God’ (ईश्वर की शपथ लेता हूं) ‘
इतना ही नहीं, शपथ पत्र के शीर्षक पर भी चर्चा हुई और डॉ. आंबेडकर ने कहा, “तृतीय अनुसूची में ‘Forms of declarations (घोषणाओं के प्रपत्र )’
के स्थान पर ‘Forms of affirmations or oaths (प्रतिज्ञानों अथवा शपथों के प्रपत्र)’ शीर्षक रखा जाए।”
ईश्वर के नाम शपथ लेने के विरोध में लंबी दलील
फिर एक सदस्य ने कहा कि ‘सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञान करता हूं’ से पहले ‘ईश्वर की शपथ लेता हूं’ आना चाहिए। यानी विकल्पों में ‘सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञान’ के ऊपर ‘ईश्वर की शपथ लेता हूं’ को प्राथमिकता दिया जाना चाहिए। तभी पूर्वी पंजाब के प्रतिनिधि सरदार भूपेंद्र सिंह मान ने ईश्वर के नाम पर शपथ लेने का विकल्प दिए जाने पर आपत्ति प्रकट की। उन्होंने अपनी सोच के पक्ष में लंबा तर्क दिया। उन्होंने कहा-
श्रीमान मैं यह प्रस्ताव उपस्थित करता हूं कि, ‘संशोधनों पर संशोधनों की सूची (1) (पांचवा सप्ताह) के संशोधन संख्या 56 से 63 तक में, तृतीय अनुसूची में शपथ अथवा प्रतिज्ञान के प्रपत्र में से (प्रस्तावित शब्दों में से ) Swear in the name of God ( ईश्वर की शपथ लेता हूं)’ शब्द निकाल दिए जाएं। इस संशोधन को उपस्थित करने में मेरा उद्देश्य यह है कि शपथ लेने में ईश्वर का नाम नहीं लिया जाना चाहिए। सभा के समक्ष ईश्वर का नाम हटा देने का प्रस्ताव रखकर मैं ईश्वरत्व का विरोध नहीं कर रहा हूं। धार्मिक तथा नैतिक दृष्टि से तथा संविधान के महत्व को दृष्टि में रखकर भी मैं शपथ से ईश्वर का नाम हटा देने के लिये सभा से अनुरोध कर रहा हूं।
जब हम स्कूल में पढ़ते थे तो हम प्रायः यह शपथ लेते थे “ईश्वर की शपथ, यह सच है”, “ईश्वर की शपथ, मैं यह करूंगा”, “ईश्वर की शपथ, मैं यह नहीं करूंगा”, “ईश्वर की शपथ, यह गलत है” इत्यादि, और हमारे अध्यापक तथा बड़े बूढ़े हमसे हमेशा कहते थे कि शपथ लेने की आदत अच्छी आदत नहीं है। मेरी समझ में नहीं आता कि उस समय जो आदतें बुरी आदतें समझी जाती थीं वे अब हमारे बड़े होने पर अच्छी आदतें कैसे समझी जाने लगी हैं। अन्य प्रकार की शपथ लेना अच्छा नहीं है। यदि किसी व्यक्ति से उसके घोषणा करने अथवा सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञान करने पर भी ईश्वर की शपथ लेने को कहा जाए तो वह कहेगा “मैं सच कहूंगा। आपको मेरा विश्वास करना चाहिये। इसकी आवश्यकता नहीं कि मैं ईश्वर की शपथ लूं।” मेरे विचार से किसी व्यक्ति से ईश्वर की शपथ लेने को कहना उसका अपमान करना है । श्रीमान, मेरा यह भी विचार है कि शपथ में ईश्वर का नाम लेकर ईश्वर का निरादर करना है। इसके अतिरिक्त मैं यह कह सकता हूं कि किसी व्यक्ति से ईश्वर की शपथ लेने को कहना उसका अविश्वास करना है।
मैं कह नहीं सकता कि ऐसे महत्वपूर्ण विपत्र के सम्बन्ध में मसौदा समिति तथा उसके सभापति ने ईश्वर की इच्छा जानने का प्रयास किया है या नहीं। मुझे इस सभा की सर्वसत्ता पर कोई सन्देह नहीं है किन्तु श्रीमान आपकी सर्वसत्ता की सीमा इतनी विस्तृत नहीं है कि वह ईश्वर के लिये भी बन्धक हो। सम्भव है। वह इसके लिये सहमत न हो। बिना उसकी इच्छा को जाने हुए हम कई स्थानों पर ईश्वर के नाम को रख रहे हैं।
ईश्वर न सदन के सदस्य, ना उनसे पूछा गया…
श्री कामत के संशोधन के अधीन संविधान के खण्डों में कुछ स्थलों पर हम ईश्वर का नाम रख चुके हैं। हम शपथ के लिये भी ईश्वर के नाम को रख रहे हैं। कल आप उसके नाम को प्रस्तावना में भी स्थान देने जा रहे हैं। मुझे सन्देह है कि ईश्वर उसे पसंद करेगा या नहीं। आपके लिये यह उत्कृष्ट संविधान हो सकता है किन्तु सम्भव है कि ईश्वर इसे पसंद न करे। सम्भव है वह इस संविधान में अपना नाम रखवाना ही न चाहे। सम्भव है कि वह साम्यवादी ईश्वर हो अथवा प्रबल समाजवादी प्रवृत्ति का हो। मैं सदस्यों से तथा डॉ. अम्बेडकर से कहता हूं कि यदि बिना उसकी इच्छा जाने हुए आप उसका नाम रख देते हैं और कल वह यह विचार करता है कि वह इस संविधान से किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं रखेगा तो इस संविधान का क्या होगा? मैं यह प्रार्थना करता हूं कि उसके नाम का संविधान में विभिन्न प्रकार से उल्लेख करने तथा उसका संविधान से नाता जोड़ने के पूर्व आप यह जान लें कि उसकी क्या इच्छा है।
यदि डॉ. अम्बेडकर की ईश्वर तक पहुंच न हो तो, श्रीमान, मैं आपसे प्रार्थना करता हूं कि आप कृपा करके उसकी इच्छा का पता लगाएं और सभा को यह सूचित करें कि वह इसके लिए सहमत है। आखिर शपथ का सम्बन्ध दो पक्षों से होता है- एक वह जो शपथ लेता है और दूसरा वह जिसकी शपथ ली जाती है। वास्तव में मेरा यह निवेदन है कि यह एक औचित्य प्रश्न है कि किसी ऐसे व्यक्ति के नाम का उल्लेख संविधान में होना चाहिए या नहीं, जो सभा का सदस्य न हो और जिसकी सहमति भी प्राप्त न की गई हो । इसका बहुत संवैधानिक महत्व है। कल यदि वह सहमत न हो और आपके संविधान से नाता तोड़ दे तो सारा परिश्रम निष्फल चला जाएगा।
सच्चे हृदय से शपथ लेने पर जोर
वहीं, प. बंगाल से मुस्लिम सदस्य नजीरुद्दीन अहमद ने प्रस्ताव रखा कि शपथ में ‘सत्यनिष्ठा से शपथ’ के साथ-साथ ‘सच्चे हृदय से शपथ’ लिए जाने पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि सदस्य शपथ लेते हुए यह कहें कि सत्यनिष्ठा और सच्चे हृदय से शपथ लेता/लेती हूं। उन्होंने अपना विचार रखते हुए कहा, ‘अध्यक्ष महोदय, मैं यह प्रस्ताव उपस्थित करता हूं कि, “संशोधनों पर संशोधनों की सूची 1 ( पांचवा सप्ताह) के संशोधन संख्या 56 के सम्बन्ध में, तृतीय अनुसूची में घोषणाओं के प्रपत्र 1 में, ‘Solemnly (सत्य निष्ठा से)’ शब्दों के पश्चात् ‘and sincerely (और सच्चे हृदय से ) शब्द रखे जाएं।” उन्होंने इस विचार के पीछे लंबा तर्क दिया। उन्होंने कहा-
मेरे पहले संशोधन के फलस्वरूप एक बहुत महत्वपूर्ण संविधानिक प्रश्न उठता है और वह यह है कि क्या मंत्रियों को सदस्यों की हैसियत से नहीं बल्कि मंत्रियों की हैसियत से, एच्चे हृदय से काम करना चाहिये या नहीं। सभा कृपा करके यह देखें कि घोषणाओं के आठ प्रपत्र हैं। संघ के मंत्रियों के सम्बन्ध में दो पत्र हैं। प्रपत्र 1 और प्रपत्र 21 पहली शपथ पद- शपथ है और दूसरी शपथ गोपनीयता शपथ है। इसके अतिरिक्त राज्यों के मंत्रियों के सम्बन्ध में भी दो प्रपत्र हैं, अर्थात् प्रपत्र 5 और प्रपत्र 6, जिनमें से एक पद शपथ के सम्बन्ध में और दूसरा गोपनीयता – शपथ के सम्बन्ध में है। इन सभी दशाओं में मंत्रियों को अपने कर्त्तव्यों का पालन करने के लिये “सत्यनिष्ठा” से शपथ लेनी है अथवा प्रतिज्ञान करना है और यह आवश्यक नहीं है कि वह यह बच्चे हृदय से कर।
यह विचार किया जा सकता है कि “सच्चे हृदय से” शब्दों को निकाल देने से वर्तमान प्रथा में कोई अन्तर नहीं आयेगा। माननीय सदस्यों से मेरा अनुरोध है कि संसद के सदस्यों तथा न्यायाधीशों के लिये जो शपथों के प्रपत्र रखे गये हैं। उन पर विचार किया जाये। संसद के सदस्यों को जो घोषणा करनी होगी वह प्रपत्र 3 में दी गई है। उन्हें “सत्यनिष्ठा से तथा सच्चे हृदय से ” घोषणा करनी है। न्यायाधीशों ने जो प्रतिज्ञान करना है वह प्रपत्र 4 उल्लिखित है। उन्होंने भी यह घोषणा करनी कि वे अपने कर्तव्य का पालन “सत्यनिष्ठा तथा सच्चे हृदय से” करेंगे। इसके अतिरिक्त उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को प्रपत्र 8 के अधीन यह घोषणा करनी है कि वे अपने कर्तव्यों का पालन “सत्यनिष्ठा और सच्चे हृदय से करेंगे।
शब्दावलियों को बहुत समझ बुझ कर चुना गया है। एक शब्दावली संसद के सदस्यों तथा राज्यों के विधान मंडलों के सदस्यों और संघ न्यायालय तथा उच्च न्यायालय के सदस्यों के लिए है, जिन्हें अपने कर्तव्यों का पालन “सत्यनिष्ठा और सच्चे हृदय” से करना है किन्तु संघ के तथा राज्य के मंत्रियों पर यह शब्दावली लागू नहीं होती। मैं यह जानना चाहता हूं कि मंत्रियों के सम्बन्ध ये शब्द जान बूझ कर नहीं रहने दिए गए हैं अथवा अनजाने। संसद के तथा राज्यों के विधान मंडलों के सदस्यों और न्यायाधीशों के सम्बन्ध में जिस सावधानी से “सच्चे हृदय से” शब्दों को रखा गया है उससे ज्ञात होता है कि अन्य स्थलों से ये शब्द जान बूझकर निकाल दिए गए हैं। मैं इस सभा के सदस्यों से जानना चाहता हूं कि क्या उनका विचार यह है कि जब तक वे विधान मंडल के सदस्य बने रहेंगे तब तक वे अपने कर्तव्यों का पालन सत्यनिष्ठा से तथा “सच्चे सदस्य से” करेंगे किन्तु जैसे ही वे मंत्रिमंडल की गद्दियों पर आरूढ़ होंगे, उनको “सच्चे हृदय से काम करने की आवश्यकता नहीं रह जायेगी। क्या विचार यही है?
यदि बात यही है तो यह आधुनिक विचार-धारा के अनुरूप ही है। वास्तव में मंत्रियों को सच्चे हृदय से काम करने की आवश्यकता है। उन्हें तो कपटी होने की आवश्यकता है। मैं कह सकता हूं कि कुछ व्यक्तियों का कपट भी सद्गुण समझा जाता है। राधा ने श्रीकृष्ण को सम्बोधित करते हुए कहा था: “निपट कपट तुम श्याम।” श्याम तुम कपटी हो। यह प्रेम की पराकाष्ठा है। क्या हम भी अपने मंत्रियों को ‘निपट कपट तुम श्याम’ कह कर संबोधित करेंगे और यह कहेंगे आप हमारे प्रभु हैं किन्तु निपट कपटी हैं?” यह शपथ इसी प्रकार की है। मैं जानना चाहता हूं कि क्या “सच्चे हृदय से काम करना” शब्दावली स्वतन्त्र भारत के किसी मंत्री के सम्बन्ध में प्रयोग में नहीं आ सकती? मैं जानता हूं कि मंत्रियों को राजनयिक होना चाहिए, चतुर होना चाहिए, किन्तु यह नहीं जानता था कि चूंकि उन्हें राजनयिक होना चाहिए इसलिए उन्हें सच्चे हृदय से काम करने की आवश्यकता नहीं