ये कहानी नहीं सच है। जहां सारी दुनिया कंप्यूटर युग में जी रही है, वहीं झारखंड के नेतरहाट के पास के जंगलों के असुर जनजाति के लोग आज भी प्रकृति के साथ जीवन व्यतीत कर रहे हैं। वे जंगल से पत्ते इकट्ठा कर ‘गूंगू’ बनाते हैं, जो छाता, ठंड और धूप से बचाता है। लाह के पत्तों से अनाज संग्रह करते हैं। जंगल और शिकार पर निर्भर यह जनजाति अपनी अनोखी परंपराओं को जीवित रखे हुए है। इनकी संख्या घट रही है। लातेहार/नेतरहाटः ठंड के मौसम में गर्म और ऊनी कपड़ों के बिना आम लोगों के लिए रहना मुश्किल हैं, लेकिन प्रकृति की गोद नेतरहाट की पहाड़ी के आसपास में बसे गांवों में रहने वाले कई जनजातीय परिवारों की जीवनशैली को देखकर आप हैरान रह जाएंगे। असुर आदिम जनजाति के कई परिवार अब भी चकाचौंध की दुनिया दूर परंपरागत तरीके से ठंड, धूप और बारिश से बचाव करते आ रहे हैं।
असुर जनजाति समुदाय में पुरानी जीवनशैली और परंपरा
आज भी कायम है।
लातेहार जिले के नेतरहाट पहाड़ी के निकट स्थित एक गांव के दीपाकुंज टोले की सुखनी असुर बताती हैं कि समय के साथ कई परिवर्तन देखने को मिला, लेकिन अब भी उनकी पुरानी जीवनशैली और परंपरा कायम हैं। हर दिन सुबह-सुबह वो अपने परिवार और गांव के अन्य लोगों के साथ जंगल निकल जाती हैं। जंगल में कई तरह के वन उपज और लकड़ियां एकत्रित कर उसे बाजार में बेचकर आय अर्जित करती हैं। पत्तों से बना ‘छाता’ ठंड, बारिश और धूप से करता है बचाव।
सुखनी बताती हैं कि हर मौसम में जंगल के पत्ते ही उनके लिए रक्षा कचच होते हैं। हालांकि सुखनी का कहना है कि अब प्लास्टिक और कपड़े आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं, इसके बावजूद गांव में खेती करने या जंगल जाने के दौरान वो अब भी पत्तों से बने ‘गूंगू’ का उपयोग करती हैं। एक ‘गूंगू’ बनाने में करीब 1000-1200 पत्तों का उपयोग होता है। इसे पहनने के बाद तेज ठंडी हवा से बचाव हो जाता हैं और ठंड में भी वो गर्मी महसूस करती हैं। वहीं बारिश के मौसम में इसे छाता की तरह उपयोग करती हैं। इसे पहन कर धान रोपनी और अन्य कृषि कार्य आसानी से बिना किसी परेशानी के कर सकती हैं। वहीं बारिश के मौसम में इसमें अपने छोटे बच्चे को भी छिपा कर रखती हैं, ताकि वो भींग न सके। गर्मी के मौसम में यह कड़ी धूप से भी बचाव करता हैं। गूंगू पहनने पर वज्रपात से भी बचा जा सकता है।
असुर जनजाति की महिलाएं बताती हैं कि पत्तों का उपयोग सिर्फ छाता बनाने के लिए हीं नहीं, बल्कि लाह के पत्ते से ढेपे, पोटोम और चुकड़ू भी बनाती है। जंगल में छाता ले जाना भूल जाने पर तत्काल पत्तों को जोड़ कर ढेपे का निर्माण किया जाता है। वहीं पोटोम का उपयोग असुर महिलाएं धान रखने के लिए करती हैं। इसमें रखा अनाज तीन-चार वर्षाें तक सुरक्षित रहता है और किसी तरह से अनाज को नुकसान नहीं पहुंचता या कीड़ा नहीं लगता है। वहीं गूंगू पहनने के बाद वज्रपात से भी बचाव होता है। इसे पहने वाले किसी भी व्यक्ति की मौत आसमानी बिजली गिरने से नहीं होती है।
विलुप्त हो रही असुर आदिम जनजातियां अब भी मुख्य रूप से पहाड़ों के किनारे बसे सुदूरवर्ती गांवों में रहती हैं। असुर जनजाति के लोग मुख्य रूप से जंगल और शिकार पर ही निर्भर है। इस समुदाय के लोगों की पहचान कुछ दशक पहले तक पत्थर को गलाकर लोहा बनाने को लेकर भी होती थी, लेकिन अब जीविकोपर्जन के लिए मुख्य रूप से वनोत्पाद और कृषि पर ही निर्भर हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार झारखंड में असुर आदिम जनजाति से आने वाले लोगों की संख्या 22459 है।
असुर जनजाति में विवाह की अनोखी प्रथा है।
असुरों की यह आम धारणा है कि बच्चे भगवान की देन हैं। यदि कोई स्त्री भगवान को प्रसन्न नहीं कर पाती हैं, तो वो कभी मां नहीं बनेगी। इस जनजाति में बच्चों का जन्म अस्पताल की जगह घर में होता रहा है, हालांकि अब जागरूक होने के कारण कई परिवार के लोग अस्पताल भी जाने लगे हैं। असुर सजातीय विवाह करने वालों की एक ही गोत्र में विवाह वर्जित है। वहीं इस आदिम जनजाति परिवारों में दहेज प्रथा भी पुराने समय से चली आ रही है। इन्हें जानने वाले बताते है कि दहेज की रकम 5 से 7 रुपये के बीच होती है। असुर पुरुषों का परिवार में ऊंचा स्थान होता है। इनका कोई लिखित रीति-रिवाज या साहित्य नहीं हैं, इसलिए बड़े-बुजुर्ग ही सामाजिक रीति-रिवाजों के संरक्षक माने जाते हैं। असुरों में विश्वास है कि किसी भी स्त्री-पुरुषों को एक निश्चित अवधि के लिए पृथ्वी पर भेजा जाता है और फिर भगवान उन्हें वापस बुला लेते हैं। मृत्यु के बाद असुरों में शव को दफनाने और दाह संस्कार की भी परंपरा है।